Tuesday, December 11, 2018

राहु और केतु से ग्रहण कैसे लगता है

बहुत पहले यही समझा जाता था कि राहु और केतु में से कोई जब अमावस्या के दिन सूर्य के पास पहुँचता है तो सूर्य को निगल लेता है और इस तरह सूर्य ग्रहण होता है । वैसे ही राहु केतु में से कोई पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा के पास पहुँचता है तो चन्द्रमा को निगल लेता है, इस प्रकार चन्द्र ग्रहण होता है ।

सूर्य, चन्द्रमा, राहु और केतु भी ग्रह हैं


विज्ञान ने प्रगति की तो पता चला कि राहु और केतु होते ही नहीं हैं, और सूर्य और चन्द्रमा ग्रह ही नहीं हैं । इस प्रकार ज्योतिष में गिने जाने वाले नौ ग्रहों में से चार तो ग्रह हैं ही नहीं । जो ग्रहण लगता है तो सूर्य, पृथ्वी और चन्द्रमा के एक सीध में आ जाने से होता है । सूर्य ग्रहण में सूर्य पर चन्द्रमा की छाया होती है और चन्द्रग्रहण में चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया ।

यदि हम कहें कि सूर्य, चन्द्रमा, राहु और केतु भी ग्रह हैं, और सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण राहु और केतु के कारण लगते हैं तो? आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या होगी? आप में से अधिकतर ने प्रतिक्रिया देने में जल्दी कर दी । उससे पहले यह कहने के पीछे आधार क्या है - यह जानना चाहिए ।

पहले बात करते हैं सूर्य आदि के ग्रह होने के बारे में । वे निश्चय ही उस अर्थ में ग्रह नहीं हैं जो planet का अनुवाद है । मोटे तौर पर planet या ग्रह वह आकाशीय पिण्ड है जो सूर्य की परिक्रमा कर रहा हो । परन्तु ग्रह शब्द के और भी अर्थ हैं । किसी शब्द का सही अर्थ वह होता है जो उस विद्या के सिस्टम में प्रयोग किया जाता है । पकड़ने के अर्थ वाली ग्रह् धातु से बने ग्रह शब्द का अर्थ है पकड़े रहने वाला । इस अर्थ में सूर्य आदि ग्रह हैं जो आपस में एक दूसरे को पकड़े रहते हैं और सभी की गति सभी से प्रभावित होती है । साथ ही ग्रह शब्द इन नौ के अर्थ में रूढ़ भी है । ग्रह शब्द योगरूढ़ है ।

राहु केतु से ग्रहण? इस जमाने में भी?


अब दूसरी बात पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करते हैं । सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण होने का कारण सूर्य चन्द्रमा और पृथ्वी के एक सीध में आ जाने के कारण होता है - यह सत्य है । साथ ही यह भी सत्य है कि दोनों प्रकार के ग्रहण राहु और केतु के कारण भी पड़ता है । इसे गणना सहित यहाँ दिखाने वाले हैं ।


ऊपर के चित्र में पृथ्वी के चारों ओर चन्द्रमा का परिक्रमण दिखाया गया है । इसमें जो क्षैतिय या horizontal लाल रेखा है वह सौरमण्डल का इक्लिप्टिक समतल (Ecliptic) को बताती है । नीले रंग का दीर्घवृत चन्द्रमा की कक्षा को बताता है । चन्द्रमा की कक्षा इक्लिप्टिक पर नहीं है बल्कि थोड़ी टेढ़ी है । यह टेढ़ापन या झुकाव पाँच अंश () है । इसकी जानकारी के लिए सर्च करें "angle of moon orbit" । यह कक्षा जहाँ इक्लिप्टिक के नीचे से ऊपर या उत्तर की ओर जाती है, वह बिन्दु राहु है । इसे नवग्रह के विकीपीडिया लेख पर Lunar ascending node कहा गया है और वास्तु इंटरनेशनल की वेबसाइट (http://www.vaastuinternational.com/astrology2.html) पर Northern Lunar node कहा गया है । इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है -

Rahu is the point in the zodiac where the paths of sun and moon cross.

इसी प्रकार चन्द्रमा की कक्षा जहाँ इक्लिप्टिक समतल के ऊपर या उत्तर से नीचे अर्थात् दक्षिण की ओर जाती है वह बिन्दु केतु है । राहु और केतु पृथ्वी के सापेक्ष 180° दूर अर्थात् ठीक विपरीत दिशा में होते हैं । दोनों सूर्य और चन्द्र के मार्गों के काटने के बिन्दु कहें या राहु और केतु कहें अथवा lunar orbit intersection points on Ecliptic कहें या Lunar nodes, ये 3'11" (ज्योतिष में तीन कला ग्यारह विकला, तथा गणित में तीन मिनट ग्यारह सेकेंड) की गति से पूर्व से पश्चिम की ओर घूमते रहते हैं । कला या मिनट एक अंश या डिग्री का साठवाँ हिस्सा होता है, विकला या सेकेंड उसका भी साठवाँ हिस्सा होता है ।

यह वर्णन ग्रहों की वास्तविक गतियों के अनुसार नहीं बल्कि पृथ्वी के सापेक्ष तथा दिखने (appearance) के अनुसार है तथा सभी दूरियाँ कोणीय इकाई (angular distance, angular diameter etc.) में हैं । कोणीय दूरी के बारे में यहाँ पढ़ें (https://en.wikipedia.org/wiki/Angular_diameter) । चन्द्रमा सूर्य से बहुत छोटा है पर कभी कभी कोणीय व्यास (angular diameter) के संदर्भ में सूर्य से बड़ा भी हो जाता है ।

जब अमावस्या के समाप्त होने के समय सूर्य के निकट राहु या केतु में से कोई आ जाता है, तभी चन्द्रमा सूर्य और पृथ्वी के ठीक बीच में आता है और सूर्य ग्रहण लगता है । अन्यथा चन्द्रमा सूर्य को उसके उत्तर या दक्षिण से पार कर जाता है । गणना द्वारा दिखाने के लिए इक्कीसवीं सदी के सबसे लम्बे चन्द्र ग्रहण का उदाहरण लेते हैं जो 27 जुलाई 2018 की रात को पड़ा था । इस गणना के लिए पहले निम्नलिखित जानकारी जुटानी होगी ।

पहले आवश्यक जानकारी जुटाते हैं 


सूर्य और चन्द्र के मार्गों के काटने का कोण (Angle of lunar orbit on Ecliptic) = 5°
इक्कीसवी सदी के सबसे बड़े चन्द्र ग्रहण की तारीख = 27-28 जुलाई 2018 
चन्द्र ग्रहण की अवधि = 23:54:26 on July 27 to 3:48:59 on July 28
(स्रोत https://www.drikpanchang.com/eclipse/lunar-eclipse-date-time-duration.html?geoname-id=1261481&date=27/07/2018)
27 जुलाई 2018 को पूर्णिमा के समाप्त होने का समय = 1:50 AM on July 28
(स्रोत https://www.drikpanchang.com/panchang/day-panchang.html पर जाएँ और दिनांक बदलें change date लिंक से, अथवा सीधे इस लिंक पर जाएँ https://www.drikpanchang.com/panchang/day-panchang.html?date=27/07/2018)
27-28 जुलाई 2018 को पूर्णिमा समाप्त होने के समय सूर्य, चन्द्र, राहु और केतु की ग्रह दशा
(https://www.drikpanchang.com/tables/planetary-positions-sidereal.html लिंक पर जाएँ और दिनांक और समय चुनें - 28/07/2018 और 01:50:04 बदलें अथवा सीधे इस लिंक से देखें https://www.drikpanchang.com/tables/planetary-positions-sidereal.html?date=28/07/2018&time=01:50:04)

ग्रह दशा के हिसाब से चन्द्रमा सूर्य के विपरीत बिन्दु को 01:50:03 से 01:50:04 के बीच में पार करता है, अतः हम उस समय की ग्रह दशा देखेंगे । राशि नाम को अंक में बदल दिया गया है, जैसे सूर्य कर्क (Cancer) राशि में है जो चौथी राशि है, अर्थात् वह तीन राशियाँ पार कर चुका है ।

सूर्य = 3|10|37|29.47 (राशि अंश कला विकला के क्रम में - zodiac, degree, minute second)
चन्द्र = 9|10|37|29.65
राहु = 3|11|46|01.18
केतु = 9|11|46|01.18

सूर्य के बिम्ब का आकार अर्थात् कोणीय व्यास (angular diameter of solar disc) = 31'27" - 32'32"
चन्द्र के बिम्ब का आकार अर्थात् कोणीय व्यास (angular diameter of lunar disc) = 29'20" - 34'06"
(स्रोत - https://en.wikipedia.org/wiki/Angular_diameter)
चन्द्रमा की दूरी पर पृथ्वी की छाया का कोणीय व्यास (angular diameter of shadow of earth at distance of moon) = चन्द्रमा के व्यास का 2.6 गुना = 76'15" - 88'40"
(स्रोत - http://www.astronomy.ohio-state.edu/~pogge/Ast161/Unit2/eclipses.html)



अब गणना करते हैं 


अब गणना करते हैं । पूर्णिमा समाप्ति के समय ग्रह दशा (planetary position in zodiac) देखें तो सूर्य और राहु पास पास हैं तथा चन्द्र और केतु पास पास हैं । परन्तु सूर्य से राहु तथा चन्द्र से केतु एक अंश से अधिक की दूरी पर है, तो फिर ग्रहण कैसे हो गया?
सूर्य - राहु = 3|10|37|29.47 - 3|11|46|01.18 = - 0|01|08|31.71
चन्द्र - केतु = 9|10|37|29.65 - 9|11|46|01.18 = - 0|01|08|31.53

इतना अन्तर होते हुए भी ग्रहण हो सकता है । सूर्य चन्द्र से राहु केतु की दशा का पूर्णतया साम्य होना केवल पूर्ण सूर्य ग्रहण या पूर्ण चन्द्र ग्रहण के लिए आवश्यक है । आंशिक सूर्य ग्रहण के लिए चन्द्र के बिम्ब का सूर्य के बिम्ब के ऊपर आना राहु केतु से थोड़ी दूर रहने पर भी हो सकता है । आंशिक चन्द्र ग्रहण के लिए चन्द्र के बिम्ब के ऊपर पृथ्वी की छाया का स्पर्श करना भी राहु और केतु के थोड़ी दूर रहने पर भी हो सकता है । अब देखते हैं कि पूर्णिमा या अमावस्या की समाप्ति के समय सूर्य और चन्द्र से अधिकतम कितनी दूर राहु या केतु को होना चाहिए जिससे कि ग्रहण लग सके । तो पहले सूर्य ग्रहण की आवश्यकता की गणना करते हैं ।

सूर्य ग्रहण की न्यूनतम आवश्यकता


अमावस्या की समाप्ति पर सूर्य ग्रहण के लिए आवश्यक सूर्य से राहु या केतु की अधिकतम दूरी की दशा में सूर्य और चन्द्र के बिम्ब एक दूसरे को स्पर्श मात्र कर रहे होंगे । उस दशा में सूर्य का केन्द्र, चन्द्र का केन्द्र और उनके मार्ग के काटने का बिन्दु (राहु या केतु अथवा intersection point of Lunar orbit and Ecliptic) मिलकर एक त्रिकोण बनाएँगे । यहाँ सभी दूरियों की इकाई arctan है जो डिग्री, मिनट और सेकेंड में व्यक्त की गई हैं । त्रिकोण में मार्ग काटने के बिन्दु पर पाँच डिग्री का कोण है । पाँच डिग्री के कोण को दो भागों में बाँटने से त्रिकोण भी दो भागों में बँट जाएगा जो एक समकोण त्रिभुज (right angled triangle) होगा । अब इसमें दूरियों को त्रिकोणमिति (Trigonometry) से नाप सकते हैं । राहु/केतु बिन्दु पर कोण ढाई डिग्री का होगा । उसके सामने की भुजा सूर्य और चन्द्र के बिम्ब की कोणीय त्रिज्या का औसत होगी (angle of the triangle on Lunar node will be 2.5 degree, and the side of triangle opposite to this angle will be average of the angular radii of Solar and Lunar discs) । इस प्रकार राहु या केतु से सूर्य की दूरी होगी

सूर्य बिम्ब का औसत कोणीय व्यास = 32' (32 minutes); त्रिज्या (radius) = 16'
चन्द्र बिम्ब का औसत कोणीय व्यास = 31'30" (31.5 minutes); त्रिज्या (radius) = 15'45"
सूर्य और चन्द्र की कोणीय त्रिज्या का औसत = 31'45" /2 = 15'52" (15.87 minutes)
सूर्य से राहु/केतु की अपेक्षित अधिकतम दूरी = 15.87 x cot 2.5 = 15.87 x 22.9 = 363.423 minutes = 6 degree 3.4'

अर्थात् यदि अमावस्या समाप्ति के समय सूर्य से राहु या केतु की दूरी 6 अंश से अधिक भी हो तो भी सूर्य ग्रहण हो सकता है ।

चन्द्र ग्रहण की न्यूनतम आवश्यकता


अब चन्द्र ग्रहण की न्यूनतम आवश्यकता की गणना करते हैं । इसकी गणना भी पहले की तरह होगी । चन्द्र ग्रहण पूर्णिमा की समाप्ति पर लगता है इसलिए इस गणना में सूर्य के स्थान पर पृथ्वी की छाया होगी जो सूर्य के स्थिति से ठीक 180 अंश की दूरी पर होगी । इस प्रकार चन्द्र ग्रहण की न्यूनतम आवश्यकता होगी कि पूर्णिमा की समाप्ति पर राहु या केतु (Lunar node) से चन्द्र अधिकतम उतनी दूरी पर हो कि चन्द्र बिम्ब और पृथ्वी की छाया एक दूसरे को छू रहे हों । इस दशा में भी 5 डिग्री कोण वाला त्रिकोण बनेगा जिसमें 5 डिग्री कोण के सामने की भुजा पर चन्द्रमा की त्रिज्या और पृथ्वी की छाया की त्रिज्या होगी | 5 डिग्री कोण को आधा करने पर बने त्रिकोण में 2.5 डिग्री कोण के सामने वाली भुजा पृथ्वी की छाया और चन्द्र बिम्ब की त्रिज्या के औसत के बराबर होगी (angle of the triangle on Lunar node will be 2.5 degree, and the side of triangle opposite to this angle will be average of the angular radii of shadow of the Earth and Lunar disc) । इस प्रकार राहु या केतु से चन्द्रमा की दूरी होगी

पृथ्वी की छाया का औसत कोणीय व्यास = 82'30 (32.5 minutes); त्रिज्या (radius) = 41'15"
चन्द्र बिम्ब का औसत कोणीय व्यास = 31'30" (31.5 minutes); त्रिज्या (radius) = 15'45"
पृथ्वी की छाया और चन्द्र की कोणीय त्रिज्या का औसत = 57' / 2 = 28'30" (28.5 minutes)
चन्द्रमा से राहु या केतु की अपेक्षित अधिकतम दूरी = 28.5 x cot 2.5 = 28.5 x 22.9 = 652.65 minutes = 10 degree 52.65'

अर्थात् यदि  समाप्ति के समय चन्द्रमा से राहु या केतु की दूरी लगभग 11 अंश भी हो तो भी चन्द्र ग्रहण हो सकता है । उदाहरण में लिए गए 27 जुलाई 2018 के ग्रहण में पूर्णिमा समाप्ति के समय चन्द्रमा से केतु की दूरी मात्र 1 अंश 8 कला (मिनट) 32 विकला (सेकेंड) ही थी ।



Saturday, November 12, 2016

देव असुर विचार

यह चिन्तन या अवधारणा यहाँ व्यक्त करने की इच्छा श्री रवीन्द्र दास जी की देव शब्द के अर्थ के विषय में फेसबुक पर की एक पोस्ट से जगी | मुहम्मद मुस्तफा खाँ द्वारा रचित शब्दकोश में देव शब्द का स्रोत फारसी बताया गया है और उसका अर्थ एक क्रूर विलेन जैसा बताया गया है | भारत में अधिकतर लोगों को यह अर्थ अजीब लगेगा पर यह सही है | संस्कृत भाषा के देव का अर्थ अलग है और फारसी भाषा के देव शब्द का अर्थ अलग है | और भी रोचक बात यह है कि दोनों भाषाओं में अलग अलग अर्थ होते हुए भी दोनों देव एक ही हैं |

हमारी कुछ स्रोतों से प्राप्त जानकारी और समझ के अनुसार सरस्वती नदी के दोनों तरफ वैदिक संस्कृति पनप रही थी | संभवतः सरस्वती देवी भी ज्ञान की देवी इसीलिए बनीं कि उनके तट पर उत्कृष्ट ज्ञान फलता फूलता था | वही संस्कृति जब दोनों तरफ दूर तक फैली तो मतों में भेद भी होने लगा | एक दूसरे से सहमत न होने के कारण पूर्व और पश्चिम के विरोधी मत पनपे जिससे संभवतः दोनों साझा संस्कृतियाँ विरोधी संस्कृतियाँ बन गईं | पूर्व के लोगों ने स्वयं को देव और पश्चिम के लोगों ने स्वयं को असुर कहा | इनमें बार बार युद्ध हुए | भारत वासियों के लिए असुर विलेन बन गए और ईरान वासियों के लिए देव विलेन हो गए | अरबी फारसी कहानियों में अब भी देव विलेन होता है और यूरोपीय कहानियों में डेविल विलेन होता है |

इसे हमारी समझ या अवधारणा के रूप में पढ़ें, इतिहास की तरह नहीं |

Thursday, June 4, 2015

शिखरिणी छन्द हिन्दी में

लक्षण । ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ , । । । । । ऽ ऽ । । । ऽ

तुम्हें कैसे बोलें, कब तक कहेंगे न इसको,
--- तुम्हारी बातें हैं, तुम बिन कहें भी तो किसको ।
तुम्हें देखा जैसे, मुझ पर हुआ ये असर है,
--- तुम्हारी मुस्कानें, हर जगह पाऊँ बिखरती ॥

{{स्पष्टीकरण - १ - हिन्दी में म्ह स्वयं में एक ध्वनि है न कि संयुक्त वर्ण, यद्यपि संयुक्त के रूप में लिखा जाता है । २ - हिन्दी में ए और ओ को ह्रस्व तथा दीर्घ दोनों प्रकार से उच्चारित किया जाता है । दूसरे चरण में आने वाला ‘तो’ शब्द ह्रस्व रूप में पढ़ा जाए ।}}

Monday, December 1, 2014

संस्कृत पाठ्यक्रम में रोचकता का अभाव क्यों है


स्कूल, और यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों के संस्कृत पाठ्यक्रम केवल वेद, साहित्य, दर्शन और व्याकरण तक सीमित हैं ।
मुझे संस्कृत में पीएच डी के दौरान सुनने को मिला (पढ़ने को नहीं) जिसका आशय है -
रसायन और धातुओं के संयोग से मित्रावरुण नामक तेज पैदा होता है । उससे पानी फट (भंग हो) जाता है और उससे दो वायु निकलती हैं - प्राण वाहु (आप जानते हैं कौन सी) और उदान वायु (शब्दशः- ऊपर जाने वाली वायु, यह भी आप जानते हैं कौन सी है) । इनमें से उदान वायु का प्रयोग विमान को हल्का करने में किया जाता है । यह किसी कक्षा के पाठ्यक्रम में क्यों नहीं मिला 
उससे पहले कभी बोधायन द्वारा विकर्ण (hypotenuse) की लंबाई ज्ञात करने के तरीके के बारे में पता चला । यह कहीं गणित के पाठ्यक्रम में नहीं मिला । किसी कक्षा के संस्कृत के पाठ्यक्रम में मुझे यह क्यों पढ़ने को नहीं मिला ।
पीएचडी जमा करने के डेढ़ साल बाद मुझे विकीपीडिया पर भास्कराचार्य का उनकी बेटी लीलावती से संवाद अंशतः पढ़ने को मिला । जिसमें उनकी बेटी पूछती है कि पृथ्वी किस चीज पर टिकी हुई है । वे बताते हैं कि किसी चीज़ पर नहीं । पृथ्वी में आकृष्ट-शक्ति है जिसके कारण हर चीज गिरती हुई दिखाई देती है । आकाश में सभी ग्रह बराबर शक्ति से एक दूसरे को खींचते रहते हैं तो भला वे गिरें कैसे? - यह मुझे पीएचडी तक किसी कक्षा के संस्कृत पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
उसी संवाद में भास्कराचार्य अपनी बेटी को बताते हैं कि पृथ्वी गोल है । बेटी मान नहीं लेती बल्कि प्रश्न करती है कि कैसे मान लूँ जबकि ऐसा दिखता नहीं है । तो वे उदाहरण देते हैं कि जैसे वृत्त (circle) के सौवें हिस्से को देखा जाए तो सीधा लगता है, वैसे ही पृथ्वी का बहुत छोटा हिस्सा देख पाने के कारण हमें समतल दिखती है । हमने पढ़ा कि कोलंबस को विश्वास था और मैगेलन ने सिद्ध किया कि पृथ्वी गोल है । यह भूगोल के पाठ्यक्रम में पढ़ने को नहीं मिला तो भूगोल के जिम्मेदार जानें पर यह मुझे किसी कक्षा के संस्कृत के पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
पीएचडी जमा करके जॉब शुरू करने के कुछ महीनों बाद मुझे महाभारत का उद्धरण पढ़ने को मिला जिसमें पृथ्वी के गोल होने तथा दुनिया के नक्शे के बारे में बताया गया है । मैंने फ़ेसबुक को प्रामाणिक न मानकर वैधता की जाँच की । यह उद्धरण सचमुच महाभारत में हैं । चन्द्रमा में पृथ्वी का प्रतिबिंब होने से असहमत हुआ जा सकता है । उसमें बताया गया है कि जैसे मनुश्य दर्पण में अपना मुख देखता है वैसे पृथ्वी चंद्रमा में (इससे पृथ्वी के गोल होने की जानकारी की पुष्टि होती है) । पृथ्वी के आधे हिस्से में दो पीपल के पत्ते हैं और आधे हिस्से में बड़ा सा खरगोश है । (आधे हिस्से में उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका पीपल के पत्ते के आकार के हैं, बाकी आधे हिस्से में बड़ा सा खरगोश है, यूरोप जिसका सिर है, अफ़्रीका जिसके कान हैं, भारतीय उपमहाद्वीप जिसकी पीठ है और दक्षिण पूर्व एशिया जिसकी पूछ है) (कोष्ठक में लिखी बात महाभारत में नहीं है) । यह मुझे इतिहास और भूगोल के पाठ्यक्रम में नहीं मिला वह अलग बात है, पर यह मुझे किसी कक्षा के संस्कृत के पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
अभी कुछ ही महीने पहले विमान-शास्त्र की किसी पुस्तक के एक पृष्ठ पर ’यानस्योपरि सूर्यस्य शक्त्याकर्षण-पञ्जरम्’ पढ़ा । आप समझ सकते हैं कि यह पंजर क्या हो सकता है । आधुनिक सोलर सेल पैनल भी पतली पतली पट्टियों से बनाए जाते हैं, इसी से वोल्टेज बढ़ता है । एक ही खंड होने से वोल्टेज नहीं बढ़ता चाहे जितनी बड़ी पट्टी लगा लें । यह प्रकरण मुझे कहीं संस्कृत के पाठ्यक्रम में पढ़ने को क्यों नहीं मिला ।
हमने कम उमर में ज्योतिष सीखा था तो उसके गणित की गहराई कुछ हद तक पता चली । अंकगणित के साथ रेखागणित और त्रिकोणमिति तो उसमें काफ़ी पहले दिख चुकी थी । पीएचडी जमा करने के सवा साल बाद सी-डैक में एक लेक्चर में सुनने को मिला कि ज्योतिष में कैलकुलस का भी प्रयोग होता है । विचार करके पता चला कि पंचांग में हर दिन ग्रह की स्थिति और गति दी होती है । यह गणना तो कैलकुलस के बिना हो ही नहीं सकती, भले ही उस विधि का नाम कैलकुलस न हो । यह तथ्य मुझे द्वितीय कक्षा से पीएचडी के संस्कृत पाठ्यक्रम में कहीं पढ़ने को क्यों नहीं मिली ।
शायद इसलिए कि पाठ्यक्रम निर्माताओं को या तो यह सब पता ही नहीं था, या लगता था कि बच्चे इसे समझ नहीं पाएँगे । केमिस्ट्री के जटिल केमिकल रिएक्शन पाठ्यक्रम में डालने वालों को तो ऐसी दया नहीं सूझती, क्योंकि वे ज्ञान देना चाहते हैं, तो संस्कृत पाठ्यक्रम बनाने वाले ऐसी दया क्यों दिखाते हैं । क्यों बहुमूल्य ज्ञान की खिड़कियाँ नहीं खोलना चाहते ।

Sunday, March 24, 2013

ये ज़िन्दगी तुम्हारी है


उसके किसी सवाल के जवाब में मैंने कहा
कि हमारे यहाँ शादी के मामले घर के बड़े लोग तय करते हैं
तो उसने कहा कि जिन्दगी आपकी है या पिताजी की
आपको यह जिन्दगी दुबारा तो मिलेगी नहीं
आपको अपनी जिन्दगी के अहम निर्णय खुद लेने चाहिए

वैसे वह सही कह रहा था
मैं भी अक्सर इसी हिसाब से बहुत से काम किए हैं
उनकी इच्छा के विपरीत और बल पूर्वक कही हुई बात के भी विपरीत
आज जनेवि में इसी वजह से हूँ
उनकी इच्छा के विपरीत जनेवि का फ़ार्म डाला
यद्यपि ड्राफ़्ट के रुपये उन्हीं से लिए

पर ....
पर क्या?
थोड़ा लेट हो गए यह कहने में कि यह जिन्दगी हमारी है
मत दखल दो इसमें
जीने दो हमें हमारी तरह
यह थोड़ा पहले कहना चाहिए था

जब
बीए के लिए मेरी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं थी
पर उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश दिलाया
जिसके बिना जनेवि आना असम्भव था
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
मुझे पड़ा रहने दो बिना किसी निश्चय के

जब
पढ़ाई तो ठीक है थोड़ा सोशल होना सीखो
इसके लिए सामान्य सरकारी इंटर कालेज में प्रवेश दिलाया
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
नहीं होना हमें सोशल, हम अकेले रह लेंगे

जब
मैं मृत्यु के बहुत करीब था
वे हमें हर महीने जिला टीबी केन्द्र ले जाते थे
डॉक्टर खान से इलाज करवाने
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
तुम्हें कोई जरूरत नहीं हमारी चिन्ता करने की

जब
साइकिल पर चढ़ाकर हमसे अपनी बाग से मौसम का पहला आम तुड़वाया था
मैंने जीवन में पहली बार अपनी बाग में पकता आम देखा था
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
तुम अपना आम खाओ हम अपना उत्साह अपनी लगाई बाग में पूरा करेंगे

जब
रोज बैठाकर स्कूल ले जाया करते थे
उसका उत्साह भी होता था और डर भी
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
मैं पढ़ूँ या ऐसे ही रह जाऊँ किसी का क्या जाता है

जब
बार बार समझाते थे और कभी कभी डाटते थे
कि कैसे रहो तो ठीक लगोगे, स्मार्ट लगोगे, अच्छे बनोगे
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
मैं कैसा भी लगूँ किसी का क्या जाता है
इंप्रेशन तो मेरा प्रभावित होगा (हम इसमें सचमुच लापरवाह रहे)

जब
मैं दो-तीन साल का था
याद नहीं कि मुझे क्या हुआ था
पर याद हैं वे चार खुराक दवाई वाली पतली सी शीशियाँ
वे लाल, भूरी, पीली दवाएँ मेरे लिए अक्सर लाते थे
एक दवा का तो स्वाद भी अब तक याद है
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
कोई जरूरत नहीं हमारा इलाज कराने की
हम रोगी रहें या ठीक रहें किसी का क्या

मुझे याद नहीं पर नाना ने बताया था
मैं पहले साल में खूब बीमार रहता था
तब कहना चाहिए था यह जिन्दगी हमारी है
कोई जरूरत नहीं हमें बचाने की

पर अब...
सचमुच देर हो गई है यह कहने में
कि यह जिन्दगी हमारी है, सिर्फ़ हमारी
किसी का हक नहीं इस पर
किसी का हक नहीं इसमें दखल देने का
असल में अपनी जिन्दगी का हक कई टुकड़ों में बाँट चुका हूँ
जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा अब भी अपने ही पास है
इसलिए अब भी अपनी मर्जी खूब चलाता हूँ
पर ------सिर्फ़------ का अधिकार मुट्ठी से फिसल चुका है

Friday, November 25, 2011

पुस्तकं प्रकाशितम्




मम एम्.फिल. शोधः पुस्तकरूपेण प्रकाशितम् जर्मनीदेशस्य लैंबर्टाख्येन प्रकाशनसंस्थानेन । अद्य मया गूगले अन्वेषितं तदा प्रथमे पृष्ठे सप्त परिणामाः अस्माकं पुस्तकस्य आसन्

Tuesday, April 12, 2011

एक बच्चे का बच्चे सा दिल

एक बच्चे का बच्चे सा दिल बचकानी हरकत करता है
वह बच्चा वह हरकत दिल की दिखलाने में भी डरता है
जोर बहुत देते हैं सब कि जो दिल में है खोल के रख दो
लोग न समझेंगे इस कारण कुछ कह पाने में डरता है

एक बच्चे का बच्चे सा दिल

एक बच्चे का बच्चे सा दिल बचकानी हरकत करता है
वह बच्चा वह हरकत दिल की दिखलाने में भी डरता है
जोर बहुत देते हैं सब कि जो दिल में है खोल के रख दो
लोग न समझेंगे इस कारण कुछ कह पाने में डरता है

Wednesday, March 2, 2011

शिवरात्रि की शुभकामनाएँ

या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहतिविधिहुतं या हविर्या च होत्री
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वं ।
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु वस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥

Monday, October 25, 2010

रुदाष्टक

नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशं ।
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारसारं नतोऽहम् ॥२॥

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटिप्रभाश्रीशरीरम् ।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारु गंगा लसद्भालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा ॥३॥

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥४॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि ।
चिदानन्दसन्दोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि ॥६॥

न यावद् उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्तिसन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूनां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जराजन्मदुःखौघतातप्यमानं प्रभो पाहि आपान्नमामीश शम्भो ॥८॥
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रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नराः भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
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सुनि बिनती सर्बग्य सिव, देखि बिप्र अनुराग ।
पुनि मन्दिर नभबानी भइ, द्विजवर वर माँगु ॥

जो प्रसन्न प्रभु मो पर, नाथ दीन पर नेहु ।
निज पद भगति देहु प्रभु, पुनि दूसर बरु देहु ॥

तव माया बस जीव जड़, संतत फिरहिं भुलान ।
तिन पर क्रोध न करिय प्रभु, कृपासिंधु भगवान ॥

संकर दीन दयाल अब, यहि पर होहु कृपाल ।
साप अनुग्रह होहि जेहिं, नाथ थोरहीं काल ॥

Sunday, June 27, 2010

किसे हिन्दू कहेंगे

इस पोस्ट में मेरा मौलिक लेख न होकर उद्धृत लेख है यद्यपि अधिकतर बातें मेरी हैं । यहाँ पर फ़ेसबुक पर स्वप्निल सोनी की एक पोस्ट पर की गई मेरी तीन टिप्पणियों का संकलन है । वह मूल पोस्ट इस प्रकार थी ---

जो संगठन कभी हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बने थे उनका उद्देश्य मुसलमानों से हिन्दुओ की रक्षा करना था आज वो अपने आप को हिन्दू नहीं मानते !जैन अपने आप को और ऐसे तमाम भगोड़े संगठन हिन्दू धर्म से निकले है आज का दलित अपने आप को हिन्दू कहने से कतरा रहा है वह मनुवादी कह कर आलोचना कर रहा है.कई राज्यों में हिन्दू नाम मात्र का है.... सवाल ये है कि फिर हिन्दू बचा कहा किसे हिन्दु कहेंगे ?

इस पर मेरी की हुई तीन टिप्पणियाँ इस प्रकार हैं ---

पहली टिप्पणी

अब इस विषय पर अपनी बात रख रहा हूँ । हिन्दू धर्म के लोग एक फ़ैक्ट्री से निकले हुए उत्पाद नहीं हैं जो पूरी तरह एक से हों । उनमें थोड़ी नहीं बहुत भिन्नता होती है और वे उन भिन्नताओं के बावजूद अपने में से एक देख सकते हैं । आज भी जो विभिन्नताओं के बावजूद सबको अपने में शामिल कर सकने की भावना रखता है, अपने को हिन्दू मानता है । इसीलिए, जाति के आधार पर भेदभाव करने वाला भी उन सभी जातियों को हिन्दू समझता है ।

अब बात यह कि दूसरे संगठन अलग कैसे हो गए । जो केवल एक प्रकार में अपने को सीमित मानने लगते हैं, वे अपने को हिन्दू से अलग मानने लगते हैं । हिन्दुओं में से युद्धवीर लोगों ने धर्म की रक्षा का संकल्प लिया, पर उन्हें जब आम हिन्दू अपने से कम वीर, कम उत्साही, लड़ाई में बराबरी से भाग न लेने वाला दिखने लगा, वे अपने आप को अलग समझने लगे ।

दूसरी तरफ़, हिन्दू धर्म की बीमारियों को दूर करने के लिए (निरर्थक हिंसा, असमानता आदि) जो संगठन बने, वे जब अपने को अधिक अहिंसक और सुशील समझने लगे तो आम हिन्दू उन्हें बड़ा बिगड़ैल दिखने लगा, तो उसे भी सुधारने के बजाय अपने को उनसे अलग समझना ठीक समझा ।रही बातदलितों के अपने आप को हिन्दू न समझने की, तो ऐसा वे ही करते हैं जो अपने को बौद्ध धर्म में दीक्षित मान लेते हैं । पर इससे क्या फ़र्क पड़ता है, बौद्ध और जैन धर्म संन्यासी धर्म हैं, उनमें जाति नहीं होती । हिन्दू धर्म में भी संन्यासी की जाति नहीं रह जाती । वे कहने को धर्म परिवर्तन करते हैं कि जातिवादी धर्म को छोड़कर जातिविहीन धर्म को अपना रहे हैं, पर वहाँ भी अपने को जाति से ही पहचानते हैं, जाति नहीं छूटती ।

मेरे इस विचार से बात यह निकली कि हिंसा हो या अहिंसा, किसी भी पक्ष में जो अतिवादी हो जाता है, वह हिन्दू धर्म से अपने को अलग समझने लगता है । जो समावेशवादी होता है, वह हिन्दू रहता है, अपने को हिन्दू कहता है । मैं अपने को हिन्दू समझता हूँ, सिकुलर हिन्दुओं को भी हिन्दू समझता हूँ, कट्टर हिन्दुओं को भी । वे छद्म धर्मनिरपेक्ष जो हिन्दुत्व की गर्दन दबाकर ही अपनी धर्मनिरपेक्षता का सबूत दे पाते हैं और जो कट्टरवादी घिनौनी करतूतों से हिन्दू धर्म को बदनाम करते हैं, उन्हें मैं हिन्दू के नाम पर कलंक मानता हूँ पर उनके हिन्दू होने से इनकार नहीं करता, उन्हें भी हिन्दू मानता हूँ । मैं हिन्दू हूँ ।


दूसरी टिप्पणी

अब ऊपर भटके हुए विषय के बारे में भी कुछ । ..... जी की उस टिप्पणी को मैंने नहीं पढ़ा जिस पर अत्यधिक विवाद हुआ पर लोगों की टिप्पणियों को देखकर लगता है कि वह आपत्तिजनक रही होगी । संकेतॊ से जैसा अनुमान होता है, मेरी ओर से भी वह निन्दनीय है । इनका रवैया भी बहुत उत्तेजक है जो मेरे जैसे स्वभाव वाले से बहुत दूर है । पर जहाँ से बात शुरू हुई थी --- जो संगठन --- ऐसे ही उबलते खून वाले लोगों से बना था । उसमें अहिंसक संन्यासी नहीं थे बल्कि धर्म और देश के लिए मर मिटने के जुनून वाले लोग थे । धर्म की रक्षा करने वाले संगठन ऐसे लोगों से नहीं बर सकते जो एक वीर राजा और उसकी सेना को भी अहिंसक संन्यासी बना दे और लड़ाई से बचने के लिए आततायियों से सन्धि करने की सलाह दे ।

ऐसे कट्टरवादियों की वजह से हमारे धर्म की बदनामी होती है, लेकिन हमें ऐसा बनने की जरूरत इसलिए नहीं महसूस होती कि यह भूकिमा दूसरे लोग निभा रहे हैं । उदारवादियों की कट्टरवादेयों से रक्षा कट्टरवादियों द्वारा ही होती है । उदारवादियों को उनको अपना समझकर अतिवाद से रोकना अवश्य चाहिए पर उनकी भूमिका को जानते हुए बहिष्कार नही करना चाहिए । निन्दनीय व्यक्ति और निन्दनीय कर्म की निन्दा अवश्य करनी चाहिए और उसे अवश्य रोकना चाहिए । इस तरह उदारवादियों को भी कट्टरवादियों की कुकर्म से रक्षा करनी चाहिए । ऐसे समावेशवादी ही अपने को हिन्दू समझने में सहज रहते हैं । सहज का मतलब कि जो हिन्दू समझकर उत्तेजित भी न हो और अपने पर शर्म भी न करे । इसको बड़े उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं कि हम देश के अन्दर अहिंसा की बात कर लेते हैं, मानवाधिकार वादी अपराधियों को आराम देने को विवश कर देते हैं, क्योंकि सीमा पर लाखों सैनिक सदा हिंसा को तैयार रहते हैं ।

कट्टरवादियों से रक्षा हम जैसे सीधे सादे लोग नहीं कर सकते । कश्मीरी पंडित बड़े सीधे साधे लोग होते हैं, वे बड़े आदर्श नागरिक समझे जाते हैं, बड़े उदारवादी । उनमें अगर खौलते खून वाले लोग होते तो उनकी यह दुर्दशा न होती जो आज है । अपने ही देश में शरणार्थी होकर रहना पड़ रहा है । अपने घर-ज़मीन मिलने की आशा पता नही कितने लोगों में बची होगी । हम खुद ऐसे नहीं बन सकते, यह वही कर सकते हैं जिनका यह स्वभाव है ।फिर मुद्दे पर । --- जो संगठन --- इसमें उस आम हिन्दू का भी दोष है जो अपने को हिन्दू कहता तो रहा पर अपने ही लिए रक्षा को हिंसक स्वभाव अपनाने वालों को उनके इस दुर्गुण के कारण घृणा करने लगे, और अपनेको उनसे श्रेष्ठ समझने लगे । उन्हें अतिवाद से रोकते पर अपनापन बनाए रखते तो क्यों अलग पहचान बनाने को प्रेरित होते ।

तीसरी टिप्पणी

मेरी तीसरी टिप्पणी में शायद मेरा मत तीसरा लगे, लोगों को भ्रम हो जाए कि मेरी विचारधारा क्या है, उसके लिए फिर से कहता हूँ कि मैं किसी विचारधारा की फ़ैक्ट्री में बना उत्पाद नहीं हूँ जो साँचे में ढला हुआ दिखूँ । कट्टरवादियों का मैं समर्थन नहीं करता । अगर हमारी भलाई के लिए भी वे अपराध करें तो भी मैं इस बात का समर्थन करूँगा कि उनको इस अपराध की सज़ा दी जाए । क्योंकि भावना के साथ न्याय-व्यवस्था भी बनाए रखनी है । लेकिन इनका अस्तित्व समाज में आवश्यक समझता हूँ यद्यपि मैं इनके साथ नहीं खड़ा होऊँगा कि मेरे स्वभाव से यह मेल नहीं खाता ।

हिन्दू धर्म सबसे उदार है - कह लीजिए कि खिचड़ी की तरह मुलायम कि बिना दाँत वाला भी खा ले । यहाँ मैं फिर विषयान्तर कर रहा हूँ । धर्म परिवर्तन के लिए हिन्दू धर्म ही सबसे सॉफ़्ट टारगेट है । हम जो अपनी निजी जिन्दगी, अपनी पढाई, अपनी नौकरी से ऊपर सिर नहीं उठा सकते, वे इस बात को देखते हुए भी रोक नहीं सकते । इंटेलेक्चुअल भी यदि तर्क और सबूत देकर रुकवाना चाहे तो वह भी दूसरे तर्कों और सबूतों से दबा दिया जाएगा और उनका योगदान अक्सर बेअसर रह जाता है । यहाँ भी उनका काम असर करता है जिन्हें हम अनुदार, कट्टरवादी, बिगड़ैल और गुण्डे कहते हैं, जो तर्कों में फँसने के बजाय सीधे काम करते हैं । उनकी अतिवादिता अवश्य शर्मनाक है जो घिनौने कृत्य वे इस प्रक्रिया में कर जाते हैं । इन्हें मुलायम खिचड़ी में कंकड़ समझिये जो स्वाद बिगाड़ देते हैं । पर खिचड़ी में कंकड़ होने पर लोग उसे खाने में डरने लगते हैं ।

Saturday, June 12, 2010

कोकाकोला और एंडरसन

आमिर खान कहा करते थे - मुझे विश्वास है कोकाकोला पूरी तरह सुरक्षित है । पहले मुझे उनके इस वक्तव्य पर गुस्सा आया, फिर मैं उससे सहमत होने लगा । हाँ कोकाकोला पूरी तरह सुरक्षित है, उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है । असुरक्षित तो सुनीता नारायण, बाबा रामदेव तथा उनका विरोध करने वाली सरकारी और गैरसरकारी संस्थाएँ हैं, जिनपर सच बोलने के लिए भी पाबन्दी लगाई जा सकती है । इसके समर्थन में मुझे यही उदाहरण याद आया था जिसे आज लोग बहुत अच्छी तरह जानते हैं - भोपाल गैस काण्ड के आरोपी का किसी ने क्या बिगाड़ लिया । एक तो यहाँ की सरकार ही उसे सुरक्षा देती है, अगर वह कुछ करना भी चाहे तो आरोपित के पीछे उसके देश की सरकार का हाथ है ।

ऐसा नहीं है कि मौका देखकर अभी बात बना रहा हूँ । तब भी मेरे मन में यही उदाहरण आया था, पर मैं सोच कर रह जाता था कि कहूँगा भी तो समझ में किसे आएगा? मुझे बात की जानकारी थी पर उससे जुड़े तथ्यों की नहीं । पर आज कोई भी इसे आसानी से समझेगा ।

Monday, December 7, 2009

उल्टा तीर पर पढ़ें कुमारेन्द्र जी की पोस्ट

उल्टा तीर पर पढ़ें कुमारेन्द्र जी की पोस्ट
खुली चिट्ठी देश के नाम

http://ultateer.blogspot.com/2009/09/blog-post_17.html

Wednesday, December 17, 2008

हिन्द-युग्म: 28 दिसम्बर 2008 को हिन्द-युग्म मनाएगा वार्षिकोत्सव (मुख्य अतिथि- राजेन्द्र यादव)

हिन्द-युग्म: 28 दिसम्बर 2008 को हिन्द-युग्म मनाएगा वार्षिकोत्सव (मुख्य अतिथि- राजेन्द्र यादव)

जैसाकि हमने २७ अक्टूबर २००८ को उद्घोषणा की थी कि इस साल के अंत में हम चार पाठकों को 'हिन्द-युग्म पाठक सम्मान २००८' से सम्मानित करेंगे। यद्यपि यह सम्मान तो पिछले साल से ही दिया जा रहा है, लेकिन इस बार हमने तय किया था कि इस सम्मान को एक समारोह में चोटी के साहित्यकारों के हाथों दिलवायेंगे।तो मित्रो, हम उपस्थित उन चार पाठकों के नाम लेकर जिन्हें आने वाले २८ दिसम्बर के कार्यक्रम 'हिन्द-युग्म वार्षिकोत्सव २००८' में गणमान्य साहित्यकारों के हाथों यह पुरस्कार दिया जाना है। साथ में बहुत सी गतिविधियाँ और होंगी जिसकी रूपरेखा लेकर हम उपस्थित हुये हैं। वर्ष २००८ में जिन चार पाठकों ने हिन्द-युग्म को सबसे अधिक पढ़ा, वे हैं-आलोक सिंह 'साहिल' दीपाली मिश्रा पूजा अनिल, और सुमित भारद्वाज इन चारों पाठकों के हस्ताक्षर हिन्द-युग्म के सभी मंचों की अधिकाधिक प्रविष्टियों पर उपलब्ध हैं। उपर्युक्त चार पाठकों को २८ दिसम्बर २००८ को धर्मवीर संगोष्ठी कक्ष ( तृतीय तल, हिन्दी भवन, आई टी ओ, दिल्ली) में प्रशस्ति-पत्र, स्मृति चिह्न और पाँच-पाँच पुस्तकों का बंडल दिया जायेगा।जिन गणमान्य लोगों के सानिध्य में यह कार्यक्रम होगा, उनके नाम हैं-मुख्य अतिथि- राजेन्द्र यादव (प्रख्यात साहित्यकार तथा 'हंस' के संपादक)

Friday, December 5, 2008

आतंकवाद पर उलटा तीर की पोस्ट

आज बीए के छात्रों के ब्लॉग देखते हुए मुझे एक छात्र के ब्लॉग में टिपण्णी में अमित कुमार सागर जी के ब्लॉग का लिंक मिल गया । उस पर हमें यहाँ लेख मिला जो उन्होंने " शमा " जी के ब्लॉग पर से उद्धृत किया है इसे आप लोग अवश्य पढ़ें सम्पर्क सूत्र है - http://ultateer.blogspot.com/2008/11/blog-post_28.html