Thursday, December 6, 2007

आरण्यकाः छात्राः कन्दराः प्रति प्रवृत्ताः (गुहान्वेषणम)

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालये ५ दिसम्बरे मानसूनसत्रः समाप्तः । अधुना त्रिवर्षपूर्वस्य स्मृतिः मम मनसि जागरति यदा मम अपि अत्र प्रथमः वर्ष आसीत् ।

अहं स्नातकोत्तरकक्षायां पठितुं २००४ क्रिष्टाब्दे अत्र आगच्छम् । मम प्रथम सत्रः (मानसून २००४) यदा समाप्तप्रायः आसीत्, आस्माभिः श्रुतं यत् विश्वविद्यालयेऽस्मिन् कन्दराः सन्ति । कुत्र सन्ति, अस्य पर्याप्ता सूचना नासीत् । ततः किम्? अस्माभिः विनिश्चितं यत् ताः ढुण्ढिष्यामहे (ढुण्ढिधातुः वेदे अन्वेषणार्थे प्रयुक्तः अस्ति) । तासां विषये केवलमिदं श्रुतमासीत् यत् ताः दक्षिणीये वने सन्ति । अनेकैः पृष्टम्, परं कोऽपि एतावत् न प्राप्तः यः कथयेत् यत् अहं तत्र गतः अस्मि, परं किञ्चित् किञ्चित् सूचना क्रमेण प्राप्ता जाता । यदा केवलं एतावद् एवे निश्चितमासीत् यत् कन्दराः सन्ति, एकस्मिन् रात्रौ, प्रायः एकादश वादने, वयं केचिज्जनाः स्व केन्द्रे (विशिष्ट संस्कृत अध्ययन केन्द्रे) संगणकीये परियोजनाकार्ये संलग्ना आस्म, रवीशः, एकः अन्यः अहं च सुरक्षाकर्मिणा प्रकाशनी (टॉर्च) आदाय अनुमानस्यैव आधारेण कन्दराः अन्वेष्टुं एकत्रस्थानतः वने प्रविष्टाः । सार्धं होरापर्यन्तं वयं तत्र अभ्रमन्, "अत्र विशालाः शिलाः सन्ति- अत्र कन्दरा सम्भवति", "अत्र गहने स्थाने सम्भवति" इत्यादीनि अनुमानानि कुर्वन् । चन्द्रिकामयी रात्रिरासीत् कन्दराः न प्राप्ताः परम् आनन्दः तु प्राप्तः । तद्रात्रौ वयं न्यवर्तयाम, अनेन निश्चयेन सह यत्, न अधुना, कदापि तु कन्दराः प्राप्स्यन्ते एव अस्माभिः । ततः निवृत्य, केन्द्रे आगत्य वयं आरण्यकम् अनुभवम् तत्र सहपाठिनः अश्रावयाम ।

अन्यस्मिन् दिने किं अभवत्......... अग्रे कथयिष्यामः........नमस्कारः

Sunday, November 18, 2007

वन्दे मातरम्


वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां
मलयजशीतलाम्
सस्यश्यामलां मातरम्
वन्दे मातरम्


शुभ्रज्योत्स्नां पुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीम्
सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्
वन्दे मातरम् ॥

रामचरितमानस- सुन्दरकाण्ड मङ्गलाचरण

जय श्री राम

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ॥

नान्यास्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रभुपुङ्गवनिर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥

संस्कृते नवलेखनम्


लिखने वाले लिखते रहते हैं और पढ़ने वालों का इन्तज़ार नहीं करते । परन्तु इस बात से प्रभावित तो अवश्य होते हैं कि उनकी लिखी बात कितनी पढ़ी जा रही है । कोई इसी आशा में लिखता जाता है कि आज मेरी रचना न भी पढ़ी जाए तो क्या हुआ "कालोऽनन्तः विपुला च पृथिवी, कोई न कोई कभी न कभी तो धरती पर आएगा जो मेरी प्रतिभा को पहचानेगा ।" परन्तु एक बात तो है कि लिखने वाले को कोई तो प्रेरक तत्त्व चाहिए ही । संस्कृत में लिखने वालों के साथ यही प्रेरक की कमी है । यद्यपि कुछ पुरस्कार प्रेरक तो बनते हैं पर सबसे अच्छा प्रेरक है रचना का पढ़ा जाना । संस्कृत के लघु रचनाकारों की बात प्रकाशित नहीं हो पाती है इससे वे नया-नया लिखने को प्रोत्साहित नहीं होते ।

पर आज हमारे पास इस समस्या से मुक्ति का उपाय है- इण्टरनेट प्रकाशन । अपने ब्लॉग पर अपनी छोटी-बड़ी बातें लिखिए, जितना हो सके उतना नया और रचनात्मक लिखिए, उन्हें ज्यादा नहीं तो आपके आस-पास के लोग तो पढ़ लेंगे । और अच्छा हो जब वे उस ब्लॉगपोस्ट पर टिप्पणी (Comment) भी दें । दूसरों की प्रतिक्रिया देखकर आपका उत्साह बढ़ेगा और आप और अच्छा लिखने के किए प्रेरित होंगे । इसमें एक फायदा भी है कि इसमें आपके आसपास के लोगों की ही प्रतिक्रियाएँ होंगी, उद्भट विद्वानों की नहीं जो कृति के स्तर पर सवाल उठाएँगे । वे आपके आस-पास के लगभग आप जैसे ही लोग होंगे । आप दूसरों से ऐसे प्रोत्साहन की अपेक्षा रखें उससे पहले आवश्यक है कि आप जिनका ब्लॉग पढ़ें, तो यदि कुछ कहने लायक लगे तो उसपर टिप्पणी अवश्य दें । यह आपकी काव्य प्रतिभा को भी निखारने में सहयोगी होगा ।

Wednesday, July 11, 2007

गिरितनया


गिरि को अचल कहें या अचला गिरिजा को
_____तप नहीं जिनका गिरीश भी डिगाए हैं
बरस करोड़ों बीते अनुभव मीठे-तीते
_____शीश गिरिराज निज आज भी उठाए हैं

गौरी खुद जगमाता हिमवान ताके तात
_____तभी देवतातमा कहत कालिदास हैं
काको कहौं दोनों हैं एक से बढ़कर एक
_____गिरि से हैं गौरी या गौरी से गिरिराज हैं
------ ------- ------- ---------- ------- सूर्यांशी

Tuesday, July 10, 2007

मेरा चित्र

अमल धवल गिरि के शिखरों पर .......... ...... ...... बादल को घिरते देखा है

this is the site of Gulmarg (KASHMIR) while tracking to touch the snow with two other people NARAYAN JI AND ADARSH SHUKLA (11 November 2006)

साधना


सत्य है नित ही प्रगति हित है जरूरी साधना
रख तू अनुशासन स्वयं पर पर तू खुद को बांध ना
पथ पे कुछ बढ़ने से पहले मन को अपने दृढ़ करो
मन में जो हो साध ना तो क्या करेगी साधना ?

है नहीं पर्याय अनुशासन दमन का अपने ही
दमन ख़ुद का करके नष्ट करो न अपने सपने ही
भ्रम में हैं वे लोग जो यम-नियम को समझे दमन
दबने को वे नहीं कहते कहते बनने को सुजन -सूर्यांशी

जय भवानी

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तु ते

श्रीगणेशाय नमः

ओ३म्

लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तम्
रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम्
उद्यद्दिवाकरनिभोज्ज्वलकान्तिकान्तम्
विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि