Monday, October 25, 2010

रुदाष्टक

नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशं ।
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारसारं नतोऽहम् ॥२॥

तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटिप्रभाश्रीशरीरम् ।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारु गंगा लसद्भालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा ॥३॥

चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥४॥

प्रचण्डं प्रकष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयःशूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥५॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि ।
चिदानन्दसन्दोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि ॥६॥

न यावद् उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्तिसन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥७॥

न जानामि योगं जपं नैव पूनां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जराजन्मदुःखौघतातप्यमानं प्रभो पाहि आपान्नमामीश शम्भो ॥८॥
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रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नराः भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
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सुनि बिनती सर्बग्य सिव, देखि बिप्र अनुराग ।
पुनि मन्दिर नभबानी भइ, द्विजवर वर माँगु ॥

जो प्रसन्न प्रभु मो पर, नाथ दीन पर नेहु ।
निज पद भगति देहु प्रभु, पुनि दूसर बरु देहु ॥

तव माया बस जीव जड़, संतत फिरहिं भुलान ।
तिन पर क्रोध न करिय प्रभु, कृपासिंधु भगवान ॥

संकर दीन दयाल अब, यहि पर होहु कृपाल ।
साप अनुग्रह होहि जेहिं, नाथ थोरहीं काल ॥